ज़ायरा वसीम जब फिल्मों में आयी थी तो ये उसकी मर्ज़ी थी। अब अगर वो फिल्मों में काम नहीं करना चाहती तो उसके फैसले का सम्मान होना चाहिए, न कि उसके फैसले पर स्टुडियो वाली अधकच्ची जानकारी के आधार पर मुर्गा लड़ाई आयोजित कर टीआरपी बढ़ाने का बेशर्म काम किया जाना चाहिए। हालांकि अगर हम अपने आस-पास झांके तो हमें आपने आस-पास अल्लाह के ऐसें हज़ारों बंदे मिल जाएंगे जो दिनभर, 5 वक़्त की नमाज़ में अल्लाह से उनके लिए एक बार बॉलीवुड के रास्ते खोल देने की दुआ करते रहते हैं। जबकि ज़ायरा वसीम की गलती ये है कि वो बॉलीवुड को छोड़ने को लेकर कोई तर्कसंगत ठोस जवाब नहीं दें पायी जिससे कि उसके इस निजी फैसले पर कोई सवाल न उठे। दरअसल सही मायने में तो उसे किसी तरह का जवाब या सफाई देने की ज़रूरत थी भी नहीं। कि, वो अपनी जिंदगी में आगे क्या करना चाहती है। लेकिन शायद ज़ायरा ने उम्र और तजुर्बे के कच्चेपन में ये एक चाही-अनचाही गलती कर दी। उसने जिस तरह से अपने फैसले को धर्म, मज़हब से प्रभावित होकर लेने की बात कही वो बात कईयों के गले नहीं उतर रही। क्योंकि, बॉलीवुड में आजतक अगर किसी धर्म-जात या मज़हब के लोगों का राज रहा है
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