अर्णव गोस्वामी के अलावा भी पूरे देश में ऐसे सैकड़ों
पत्रकार हैं जो अपना काम बड़ी मेहनत और ईमानदारी से करते हैं। हाँ ये अलग बात है कि
वो इतने रसूखदार नहीं हैं कि किसी नेता, मंत्री या राजनीतिक दल या देश की मीडिया
ये मठाधीशों को उनकी चिंता हो। ताज़ा उदहारण के तौर पर याद कीजिये उत्तर प्रदेश के
मिर्ज़ापुर के सामान्य से पत्रकार पवन जायसवाल को, जिसे स्थानीय प्रशासन द्वारा
इसलिए प्रताड़ित किया गया, उसपर मुकदमा कर दिया गया। क्योंकि उसने अपनी एक ग्राउंड रिपोर्ट में मिडडे
मील के नाम पर सरकारी स्कूल के बच्चों को नामक रोटी परोसने की घटना को उजागर किया
था। न कि स्टूडियो में बैठकर कोरे आरोप लगाए थे। ऐसी स्पष्ट और साहसिक पत्रकारिकता
करने वाले मीडियाकर्मी के लिए क्या किसी बड़े पत्रकार ने, मीडिया के मठाधीश ने
इंसाफ दिलाने के लिए कोई पहल की ?
ऐसे में
अर्णव गोस्वामी का पक्ष लेने वाले पत्रकारों, नेताओं आदि को ये याद रखना चाहिए कि,
अर्णव पूरे भारतीय मीडिया या भारतीय पत्रकारों का प्रतिनिधि नहीं है। साथ ही
वर्तमान में वो एक बड़े मीडिया हाउस के मालिक भी हैं इसलिए इस बात से कतई इंकार
नहीं किया जा सकता कि उनका इन्ट्रेस्ट पत्रकारिता के अलावा अपने धंधे को बढ़ाने में
भी होगा। यानी एक पेशेवर, कर्मठ पत्रकार भले ही अपने पेशे से समझौता नहीं करे, लेकिन
एक व्यापारी आज के कॉर्पोरेट वर्ल्ड की रैट रेस में खुद के व्यापार को बढ़ाने के
लिए कई हथकंडे अपना सकता है। मीडिया और राजनीति की साठगांठ से किस तरह ख़बरें बनाई
और छुपाई जाती हैं ये बात भी अब किसी से छिपी नहीं है। हर दूसरा मीडिया हाउस किसी
न किसी राजनीतिक दल का दुलारा है तो हर दूसरे बड़े पत्रकार पर ऐसे कई आरोप हैं जिसे
उन्हें पसंद करने वाला पाठक, दर्शकवर्ग गलत और निराधार बताता है जबकि विपक्ष उसे
सुपारी पत्रकार की श्रेणी में रखता है। विज्ञापनों के भरोसे चलने वाले मीडिया घरानों
को भी इससे अलग कर नहीं देखा जा सकता।
और शायद तभी
तो अर्णव खुलकर कभी किसी मीडिया हाउस को 'तक तक वाले' कहकर सरेआम उसकी बेज्जती करने से नहीं झिझकते हैं, तो
कभी "कौन एनडीटीवी? कौन राजदीप
सरदेसाई? मैं नहीं
जानता ऐसे किसी पत्रकार" को कहकर अपने घमंड का प्रदर्शन करते हैं। जबकि एक
समय में वो वहां नौकरी किया करते थें। तो कभी अपने स्टुडियो में ख़ुद के बुलाए
गेस्ट पर ऐसे बिदक पड़ते हैं जैसे हर बार वो ही सही और सच्चे हो।
जबकि वो
अपने प्रोफेशनल एथिस्क के साथ ही रिश्तों को भी बड़ी समझदारी और ईमानदारी से निभा
सकता है। लेकिन जब घमंड सिर चढ़कर बोलने लगता है तो न ही कोई पेशेवर रिश्ता याद
रहता है न ही प्रोफेशनल एथिस्क।
बाक़ी जहाँ तक
पालघर कांड से सोनिया गांधी को जोड़कर अर्णव गोस्वामी ने एक थियोरी पेश की है। तो
उसमें जो पेंच है वो कल को उन्हीं पर भारी पड़ सकता है। क्योंकि अर्णव ने खुलेआम जो
आरोप सोनिया गांधी पर लगाए हैं। अगर उसका उन्हीं के शब्दों में विश्लेषण किया जाए,
तो अर्णव के अनुसार सोनिया गांधी ने रोम के पादरियों या ईसाई मिशनरियों के इशारे
पर हिंदू संतों की हत्या करवाई है, और अब उन्हें रिपोर्ट भी भेजेंगी।
ऐसे में
यहाँ ये बड़ा गंभीर सवाल खड़ा होता है कि क्या रोम/इटली या किसी अन्य पश्चिमी देश के ईसाई
मिशनरी द्वारा भारत के संतों की भारत में हत्या करवाने की साज़िश रची गई थी? अगर ऐसा है तो ये भारत के खिलाफ एक
अंतरराष्ट्रीय साज़िश है और वो भी एक राजनीतिक दल के सबसे बड़े नेता के द्वारा रची
गई साजिश? तो फिर इससे
संबंधित कोई सुराग अभीतक हमारी ख़ुफ़िया एजेंसियों के पास क्यों नहीं है? क्या वो इससे जुड़ा कोई तथ्य जुटाने
में नाकाम रहीं हैं? इस बात की उच्च स्तरीय जांच होनी चाहिए। साथ ही अर्णव को उन
सभी ठोस तथ्यों को सरकार को सौपने चाहिए जो कि इस साजिश का पर्दाफाश कर पाएं। और
जिनके बिनाह पर उन्होंने सोनिया गांधी पर काफी संगीन आरोप लगाए हैं।
और अगर ऐसा
नहीं है अर्णव के आरोप मनगढ़ंत हैं जो शायद कभी साबित न हो पाए। तो फिर क्या अर्णव
पर रोम की सरकार और वेटिकन सिटी द्वारा उनके धर्म, उनके देश को बदनाम करने का
मुकदमा दर्ज नहीं किया जाना चाहिए?
क्योंकि
अर्णव की इस तरह की पत्रकारिता न सिर्फ़ भारत की पत्रकारिता की साख को अन्तरराष्ट्रीय
स्तर पर नुकसान पहुंचाने वाली है। बल्कि ये पूरे देश की बदनामी का सबब भी हो सकती
है जब भारत की अंदरूनी राजनीति के गंदे खेल को एक पत्रकार द्वारा बेमतलब में किसी
दूसरे देश और वहां के धर्म से जोड़कर बदनाम किये जाने की कोशिश की गई है।
साथ ही जो पत्रकार, नेता एवं तथाकथित बुद्धिजीवी सोशल मीडिया पर अर्णव से 12 घंटे हुई पूछताछ पर ग़दर मचा रहे हैं या ये कह रहे हैं
कि आप अर्णव की पत्रकारिता के तरीकों से असहमत हो सकते हैं उन्हें ये पता होना
चाहिए कि उसी असहमति वाले तरीके को समझने के लिए 12 घंटे की पूछताछ की गई है। जिसपर अर्णव ने खुद भी उसके साथ हुई पूछताछ पर ख़ुशी जताई है। साथ ही मीडिया का काम बिना साक्ष्यों के किसी पर भी आरोप लगा देना नहीं है। मीडिया हमेशा से अपने पास पहले मजबूत साक्ष्य जुटाता है और उसके बाद किसी को भी अपनी रिपोर्टिंग के ज़रिये कठघरे में खड़ा करता है। लेकिन अर्णव ने अपने बोखलाहट में सिर्फ़ मनगढ़ंत आरोप ही लगाए हैं।अभी तक पुलिस या जनता के सामने ऐसा कोई भी ठोस साक्ष्य नहीं पेश किया, जिससे ये सिद्ध हो कि सोनिया गांधी ने पालघर में संतों की निर्मम हत्या किसी विदेशी मिशनरी के कहने पर करवाई है।
वहीं अर्णव ने न तो मुम्बई
पुलिस पर न तो उसे प्रताड़ित करने का, और न ही किसी प्रकार के दुर्व्यवहार का आरोप लगाया है।
ऐसे में अगर पुलिस किसी भी मीडियाकर्मी जिसे अपनी रिपोर्टिंग पर भरोसा उसको 12
घंटे की पूछताछ के लिए बुलाती है तो ये उसकी ड्यूटी है कि वो सरकारी अधिकारी को
जांच में सहयोग करें। अर्णव के मामले में भी ऐसा ही हुआ है। इसे अन्यथा नहीं लेना
चाहिए बल्कि इसे इस तरह से समझना चाहिए कि कानून अपना काम कर रहा है जैसे बाकी के
मुकदमों में करता है। जहाँ मीडिया का एक धड़ा चीख-चीख कर उसके काम करने के तरीके पर
सवाल उठता है तो दूसरा इसलिए मुँह बंदकर बैठा रहता है क्योंकि उसे कानून पर पूरा
भरोसा होता है। उसे मालूम होता है कि सारी कार्यवाही न्यायिक व्यवस्था का पालन करते हुए की जा रही है।
फिर भी अगर
आप अर्णव के आरोपों की तुलना सोनिया गांधी के मौत के सौदागर वाले बयान से या राहुल
गांधी के चौकीदार ही चोर वाले बयान से करके अर्णव का बचाव करने की सोच भी लें। तो
आपको याद दिला दूँ उन दोनों बयानों के अलावा अरविन्द केजरीवाल ने भी भाजपा नेता
नितिन गडकरी पर कुछ आरोप लगाए थे, लेकिन बाद में उन्हें साबित नहीं कर पाने के
कारण कोर्ट में मॉफी भी मांगनी पड़ी थी। वैसे भी ये सभी निचले दर्जे के बयान राजनेताओं
की आपसी गंदी राजनीति का हिस्सा होते हैं जिससे कोई भी राजनीतिक दल अछूता नहीं हैं।
जबकि अर्णव की पहचान एक पत्रकार की है, न कि एक राजनेता की जो कभी भी अपनी राजनीति
चमकाने के लिए कोई भी गलत-सलत बयानबाजी कर दे और जब फंस जाए तो मॉफी मांग ले।
क्योंकि पत्रकारिता में रिपोर्टिंग का आधार कोई न कोई साक्ष्य होता है जबकि अर्णव
के पास सोनिया गांधी पर लगाए आरोपों का कोई साक्ष्य आजतक किसी को देखने को नहीं
मिला है।
जो भी हो सच सामने आना चाहिए
जवाब देंहटाएंरवीश कुमार एंड कंपनी तथा अर्नब दोनों कमिटेड प्रतीत होते हैं । मेरे विचार में जो कमिटेड है वह पक्षपाती अवश्य होगा
जवाब देंहटाएंगिरीश सर पक्षपात करने में कोई बुराई नहीं है बशर्ते कि आपके पास आपके द्वारा लगाए गए आरोपों का ठोस आधार /साक्ष्य होने चाहिए। वरना इसके बिना आप कुछ समय के लिए झूठा मनगढंत एजेंडा तो चला सकते हैं, लेकिन पत्रकारिता नहीं कर सकते, धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंअर्नव पत्रकारिता नहीं करता चाटुकारिता करता है. किसकी, वह तो जगजाहिर है. बस चीख चीख कर बोलना और स्टूडियो में आमंत्रित व्यक्ति अगर उसके खेमे का नहीं है, तो कुछ भी इल्जाम लगा देना और बोलने न देना, यही तो वह करता है. जिस तरह सोनिया गाँधी के लिए उसने बोला है, उसे कड़ी सज़ा मिलनी चाहिए.
जवाब देंहटाएंअर्नव गोस्वामी का हाल भी वही होगा, जो सके समय शोएब इलियासी के साथ हुआ था। हालांकि उसने पत्नी का अपने मर्डर किया था, लेकिन यहां तो ये वैचारिक आतंकवाद के जरिए देश को ही खत्म करने पर तुला है।
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