कोरोना
से संकटग्रस्त पूरी दुनिया के मौजूदा हालात को देखकर ऐसा लगता है जैसे हम सभी हॉलीवुड
की कोई साइंस फिक्शन/सस्पेंस थ्रिलर फ़िल्म देख रहे हों। जिसमें कुछ इंसानों की गलती
का खामियाज़ा पूरी मानव जाति के अस्तित्व पर संकट बन मंडरा रहा हो।
इस बीमारी के वायरस एच1 एन1 इन्फ्लुंज़ा वायरस की पैदाइश के बारे में वैज्ञनिकों द्वारा जुटाए गए तथ्यों के अनुसार इसका जन्म मिड वेस्ट अमेरिका में हुआ था। जहाँ के खेतों में पाए जाने वाले गोवंश के एक पशु (बायसन एक प्रकार का बैल) की मीट में सबसे पहले एच 1एन 1 इन्फ्लुंज़ा के वायरस पाए गए थें। हालाँकि इस तथ्य को लेकर भी विवाद है मगर ऐतिहासिक जानकारी के अनुसार यही कारण सर्वाधिक प्रचलन में है।
आखिर क्यों संभल नहीं पाए थे हालात ?
वहीं उस दौरान जो सबसे चौकाने वाली बात देखी गई थी वो थी कि अपने दूसरे चरण में इस बीमारी ने नौजवानों को अपनी चपेट में लेना शुरू कर दिया था जिससे कि 20 से 40 आयुवर्ग के ढेरों नौजवान इस बीमारी के कारण मौत के मुँह में समा गए थें। चिकित्सा विशेषर्ज्ञों का मानना है कि गर्मियों के बाद वापस लौटे स्पेनिश फ्लू के वायरस को मौसम का बहुत साथ मिला था एक तरह से बरसात का मौसम उनके लिए ज़्यादा अनुकूल था और जिसने उन जीवाणुओं की ताकत में बढ़ोतरी कर दी थी।
जिसमें
हर इंसान अब इस डर के साथ अपनी ज़िंदगी काट रहा हो कि अगला नंबर उसका ही लगने वाला
है। हम रोज़ाना ज़िंदगी से एक दिन और, एक
दिन और उधार मांगकर जी रहे हों। ऐसे
में पता नहीं कब ज़िंदगी हमें ये उधार देना बंद कर दें, कब एक छोटी सी गलती हमें उस
संकट के और नजदीक ले जाए जहाँ से वापस ज़िंदगी का रास्ता फ़िलहाल खोजे नहीं मिल रहा।
लेकिन
सच तो ये है कि न ही ये कोई बुरा सपना है और न ही हम हॉलीवुड की कोई साइंस
फिक्शन/सस्पेंस थ्रिलर फ़िल्म। देख रहें
हैं। बल्कि ये मानव सभ्यता का वो एक कड़वा सच है जिसे लगभग पूरी मानव जाति भोग रही
है।वहीं जो लोग फ़िलहाल इससे बचें हुए हैं
वो भी डरे हुए हैं। क्योंकि कोई नहीं जानता कि ये अदृश्य बीमारी कब दबे पाँव उनके
दरवाज़े पर दस्तक दे दें।
ऐसे
में सवाल ये है कि क्या मानव सभ्यता के इतिहास में ऐसी भयंकर घटना पहली बार घट रही
है, या इससे पहले भी मानव जाति ने ऐसे किसी भयवाह संकट का अनुभव किया है? जिससे कि
हमें कोई सीख, कोई रास्ता या बचाव संबंधी कुछ तरीकों के बारे में पता चल पाए। तो
इसका जवाब है नहीं, ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है इससे पहले सार्स, इबोला, स्वाइन
फ्लू जैसे कुछ बीमरियां भी बहुत तेज़ी से लोगों के बीच फैली थी लेकिन विज्ञान और
इंसान की शानदार जोड़ी ने वक़्त रहते उनके उपाय खोज लिए थें।
जबकि
आज से लगभग सौ साल पहले यानी सन 1918 से 1920 के बीच में एक ऐसी भी बीमारी फैली थी
जिसका वक़्त रहते ज़रूरी शोध /अनुसंधान नहीं कर पाने के कारण मानव जाति को उसकी बड़ी
भारी कीमत चुकानी पड़ी थी। जिसमें सरकारी
आंकड़ों के अनुसार पूरी दुनिया में 5 करोड़ लोगों की मृत्यु हुई थी और जिसमें से
अकेले भारत में मरने वालों की संख्या 1.50 करोड़ के आसपास थीं। हालाँकि कुछ
शोधकर्ता इन आंकड़ों को भी कम बताते हैं और उनका मानना है कि ये संख्या लगभग 10 करोड़
के नजदीक थी।
तो
चलिये जानते हैं उस बीमारी के बारे में और समझते हैं कि अगर उसकी तुलना वर्तमान की
स्थिति से की जाए तब हमने क्या खोया और क्या पाया? बात करते हैं साल 1918 के
शुरूआती महीनों जनवरी–फ़रवरी की जब स्पेनिश फ्लू जिसका वैज्ञानिक नाम इन्फ्लुंज़ा पेंडमिक-1918
है उस बीमारी ने मानव जीवन को खतरें में डाल दिया था।
इस बीमारी के वायरस एच1 एन1 इन्फ्लुंज़ा वायरस की पैदाइश के बारे में वैज्ञनिकों द्वारा जुटाए गए तथ्यों के अनुसार इसका जन्म मिड वेस्ट अमेरिका में हुआ था। जहाँ के खेतों में पाए जाने वाले गोवंश के एक पशु (बायसन एक प्रकार का बैल) की मीट में सबसे पहले एच 1एन 1 इन्फ्लुंज़ा के वायरस पाए गए थें। हालाँकि इस तथ्य को लेकर भी विवाद है मगर ऐतिहासिक जानकारी के अनुसार यही कारण सर्वाधिक प्रचलन में है।
क्या
थें बीमारी के मुख्य लक्षण?
इस
बीमारी का सीधा असर पीड़ित व्यक्ति के फेफड़ों पर पड़ता था जिसके बाद उसे एक असहनीय खांसी शुरू हो जाती थी जिसमें पूरे शरीर में बहुत तेज़ दर्द होता था जिसके बाद उसकी नाक से खून का रिसाव होने
लगता था। अत्यधिक बुरी अवस्था में पीड़ित के कान और मुँह से भी खून निकाल आता था जिसके बाद पीड़ित का शरीर का रंग
पहले नीला फिर बैगनी और अंत में काला पड़ जाता था।
50
करोड़ लोग हुए थे इससे संक्रमित
आंकड़ों
के अनुसार उस दौरान इस बीमारी से तक़रीबन 50 करोड़ लोग संक्रमित हुए थें जिनमें से
10 प्रतिशत की मौत हो गई थी। सरकारी
आंकड़ों के अनुसार अकेले भारत में तक़रीबन 1.50-1.75 करोड़ लोग इस बीमारी के कारण काल
के गाल में समा गये थे। कहते हैं कि उस दौरान महात्मा गांधी भी भारत लौट आये थे और
वो भी इस बीमारी के चपेट में आ गए थें। वो तो शायद ऊपरवाले की मर्ज़ी नहीं थी इसलिए
वो बच गये थें।
लेकिन उनकी पुत्रवधू गुलाब और पौते शांति इस बीमारी के प्रभाव से
नहीं बच पाए। हिदीं के प्रसिद्ध कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने अपनी आत्मकथा
कुल्ली भाट में इस घटना का स्मरण करते हुए लिखा था कि “ मैं दालमऊ में गंगा के घाट
पर खड़ा हूँ, जहाँ तक मेरी नज़र जाती है गंगा के पानी में इंसानी शव ही तैरते दिख
रहे हैं।“ इस बीमारी से कवि सूर्यकांत
त्रिपाठी निराला की पत्नी, मनोहरा देवी और उनकी एक साल की बेटी की भी मृत्यु हो गई
थी। उनके भाई के बड़े बेटे ने भी इस बीमारी से दम तोड़ दिया था।
कैसे
फैली थी ये बीमारी ?
अमेरिका
में जन्मी इस बीमारी के पूरे विश्व में फैलने का जो मुख्य करना था, वो था प्रथम
विश्व युद्ध। जो उस दौरान अपने अंतिम चरण
में था। लेकिन चूँकि अभी जंग जारी थी और अमेरिका ने साल 1917 में ही इस युद्ध में
भाग लेने का निर्णय लिया था तो उस दौरान हज़ारों अमेरिकी सैनिकों को युद्ध के लिए
यूरोप भेजा गया था। जिस दौरान उन्हें ट्रेंच
वार फेयर ज़ोन (गड्ढे नुमा जगह में छुपकर शत्रु पर हमला करने की कला, पश्चिमी देशों
में युद्ध के दौरान इस युद्धकला का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जाता है) में से मोर्चा
संभालना पड़ता था।
इस
कारण न तो वहाँ मौजूद सैनिक सोशल डिस्टेंसिंग का पालन नहीं कर पाए और न ही युद्ध
स्थल में मौजूद गंदगी कीचड़ आदि से खुद का बचाव कर पाए। जिससे इस संक्रमण ने बड़ी
तेज़ी से वहाँ मौजूद सैनिकों को अपनी चपेट में ले लिया, उसके बाद जब उन बीमार
सैनिकों को इलाज के लिए उनके देश भेजा गया तो ये बीमारी धीरे–धीरे यूरोप के अलग-अलग
देशों में जा पहुंची।
अमेरिका
से उत्पन्न होने के बावजूद ‘स्पेनिश फ्लू’ नाम क्यों पड़ा ?
दरअसल
प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान उसमें भाग लेने सभी देशो ने अपने–अपने देश की मीडिया पर
सेंसरशिप लगा रखी थी। क्योंकि हर देश ये
चाहता था कि उसके देश की नकारात्मक ख़बरें या युद्ध संबंधी रणनीति से जुड़ी कोई गुप्त
सूचना बाहर न आ पाए। लेकिन स्पेन एक ऐसा देश था जिसने विश्वयुद्ध में भाग लेने से
मना कर दिया था। यानी उसने सेंट्रल पॉवर
एवं अलायन्स दोनों हो पक्षों में से किसी का भी साथ देने से इंकार कर दिया था। ऐसे में स्पेन ने अपने देश की मीडिया रिपोर्टिंग
पर किसी तरह की कोई पाबंदी नहीं लगाई थी। जिस कारण स्पेन का मीडिया युद्ध से जुड़ी
हर खबर को बिना सेंसरशिप के पेश कर रहा था।
स्पेन
की ये कार्यशैली अमेरिका ब्रिटेन और जर्मनी जैसे देशों के लिए सरदर्द बनी हुई थी।
ऐसे में एक एजेंडा के तहत इन सभी देशों ने स्पेन को बदनाम करने एवं हीनभावना से
ग्रस्त होकर अपने यहाँ के मीडिया को ये खबर चलने का आदेश दिया कि वर्तमान में फ़ैल
रही महामारी की जड़ में स्पेन है। धीरे-धीरे पूरी दुनिया ने ये मान लिया कि इस
बीमारी का एपिडेमिक सेंटर स्पेन ही है। उसी दौरान स्पेन के राजा एवं स्पेन की कई अन्य
कई बड़ी हस्तियाँ जब इस बीमारी की चपेट में आ गई तो स्पेन अलग–थलग पड़ गया और बाकी
देशों के फैलाए झूठ को और भी बल मिला। यही कारण है कि अमेरिका से शुरू हुई एक
जानलेवा बीमारी का नाम स्पेन जैसे बड़े यूरोपियन देश के नाम पर रख दिया गया।
भारत
में कैसे पहुँचा था स्पेनिश फ्लू ?
जिस
तरह से अमेरिका से यूरोप का सफ़र इस संक्रमण ने विश्वयुद्ध में भाग लेने वाले
सैनिकों को अपना वाहक बनाकर किया था। ठीक वैसे ही आपको याद होगा कि 1918 के समय
भारत ब्रिटेन के अधीन था। ऐसे में भारत में इसके वाहक ब्रितानी सैनिक थे, जो बॉम्बे
पोर्ट के ज़रिये भारत में आये थे। और जिनकी वजह से सबसे पहले बॉम्बे पोर्ट के
कर्मचारी इस बीमारी की चपेट में आ गए थें। इसलिए भारत में इसके फैलने के बाद लोगों
ने इसे बॉम्बे फ्लू का भी नाम दे दिया था। बताया जाता है कि वो 29 मई 1918 का दिन था जब
पहली बार इस बीमारी ने भारत में दस्तक दी थी।
कैसी
थी भारत की स्थिति?
आंकड़ों
के मुताबिक भारत में इस बीमारी की स्थिति और भी चिंताजनक थी। क्योंकि, उन दिनों
भारत एक गुलाम देश था। जिस कारण यहाँ शासन करने वाली ब्रितानी सरकार ने यहाँ की
जनता के लिए कभी कोई पब्लिक हेल्थ पॉलिसी बनाई ही नहीं थी। न ही मौजूदा सरकार को
भारत में होने वाली असंख्यक मौतों से कोई फर्क पड़ रहा था।
ऐसे में सरकारी आंकड़ों
के अनुसार भारत में पूरी दुनिया में हुई मौतों में से 25 प्रतिशत मौतें दर्ज़ की गई
थी। जो कम से कम 1.50 करोड़ से 1.75 करोड़
के बीच की संख्या थी। वहीं
भारत में हालत सबसे ख़राब होने की एक बड़ी वजह थी देश में पड़ा अब तक का सबसे बड़ा
सूखा। जिससे यहाँ के निवासियों के लिए खाने तक के लाले पड़ गए थे और जिस कारण
भारतीयों की प्रतिरोधक क्षमता बहुत ज़्यादा कमज़ोर पड़ गई थी।
पुरुषों
की तुलना में महिलाओं की मृत्युदर थी ज़्यादा-
एक
जानकारी के मुताबिक इस बीमारी से भारत में हुई मौतों में पुरुषों की तुलना में
महिलाओं की मृत्यु दर कहीं ज़्यादा थी। जिसके पीछे की मुख्य वजहें उनका पुरषों की
तुलना में शारीरक रूप से कमज़ोर होना एवं बीमार लोगों की सेवा में उनकी अधिक
सक्रियता माना जाता है, जिस कारण बीमारी का वायरस आसानी से उन्हें अपनी चपेट में ले
लेता था।
विकास
दर हुई थी नकारात्मक-
इतने
बड़े हादसे के बाद ऐसा नहीं था कि सिर्फ़ देश ने बड़े पैमाने पर अपनी मानवीय शक्ति ही
खोई थी , बल्कि भारत की विकास दर भी घटकर नकारात्मक हो गई थी। भारत की विकास दर
शून्य से कहीं नीचे – 10.8% तक जा पहुंची थी। जबकि वहीं महंगाई दर ऊँचाई के नए शिखर
पर जा पहुंची थी।
अमेरिका
को भारी पड़ी थी फिलाडेल्फिया की
गलती-
भारत में फिलहाल जारी कोरोना संक्रमण के
दौरान ऐसी बहुत सी लापरवाहियां और गलतियाँ देखने को मिल रही हैं, जिनके कारण ये
बीमारी कम होने की बजाए बढ़ गई है। ऐसी ही एक बड़ी गलती स्पेनिश फ्लू के दौरान भी
देखने को मिली थी। जब अमेरिका के पेंसिल्वेनिया राज्य के सबसे बड़े शहर फिलाडेल्फिया
में शहर के मेयर ने जारी विश्वयुद्ध में भाग लेने वाले सैनिकों के लिए धनराशि जमा
करने के लिए डॉक्टर्स की चेतावनी को
नज़रंदाज़ कर एक परेड़ का आयोजन करवाया था। इस
आयोजन में तक़रीबन 2 लाख स्थानीय लोगों ने हिस्सा लिया था, जिसके एक सप्ताह बाद
लगभग 2600 स्थानीय लोगों की स्पेनिश फ्लू से मौत हो गई थी।
जिसके बाद फिलाडेल्फिया के हालात ऐसे हो गए
थे कि स्थानीय चर्च के पादरी घोड़े पर सवार होकर मोहल्लों में जाते और चिल्ला-चिल्ला
कर सभी लोगों को संदेश देते कि जिनके भी घर में कोई मौत हुई है वो शव को घर के
बाहर रख दें। ताकि उनके अंतिम क्रियाक्रम का काम बिना किसी खतरे के चर्च की समिती
द्वारा चुपचाप किया जा सके। ये नज़ारा कुछ ऐसा होता था जैसे आजके समय में कचड़ा
उठाने वाली गाड़ी हमारे घरों/गलियों में आकार घर के कचड़े को बाहर रख देने के लिए
कहती है।
ब्लैक डेथ के नाम से प्रसिद्ध है ये कालखंड-
एक ओर जहाँ साल 1914-1918 तक जारी प्रथम
विश्वयुद्ध में दुनियाभर के अलग–अलग देशों के सैनिकों की मृत्यु युद्ध के कारण हो
गई थीं वहीं दूसरी ओर साल 1918 में पैदा हुई स्पेनिश फ्लू की बीमारी से पूरी
दुनिया में बड़ी संख्या में लोगों की मौत हुई थीं। आंकड़ों के अनुसार युद्ध के दौरान
जहाँ 4 करोड़ के आसपास की संख्या में सैनिकों की मृत्यु हुई थीं वहीं स्पेनिश फ्लू
के कारण पूरी दुनिया में लगभग 5 करोड़ लोगों की मृत्यु दर्ज़ की गई थीं। यानी इस
पूरे कालखंड में जो कि साल 1914 से 1920 साल तक का समय था।
पूरी दुनिया में 9 करोड़
लोगों की मौत हुई थी जिससे जनसँख्या के आंकड़ों पर एक चिंताजनक परिवर्तन देखने को
मिला था। क्योंकि इस तरह हुई मौतों का कुल प्रतिशत, कुल जनसँख्या का 3% के आसपास
का था। साथ ही मानव जनगणना के इतिहास में पहली बार साल 1911-1921 के आकंड़ों में
कमी दर्ज़ की गई थी। साथ ही अमेरिका जैसे पश्चिमी देशों में औसतन आयु 51 वर्षों से
घटकर 39 वर्ष हो गई थी। '
आखिर क्यों संभल नहीं पाए थे हालात ?
दरअसल जिस समय स्पेनिश फ्लू नामक बीमारी पैदा
हुई थी उस दौरान न तो इंसान और न ही विज्ञान इतना काबिल था कि इस बीमारी से लड़
पाता या इसकी चुनौती को स्वीकार कर पाता। कहने का मतलब ये है कि उस दौरान लोगों को
ऐसी किसी महामारी के इतने भयंकर तरह से फ़ैल जाने का कोई अंदेशा नहीं था। किसी को इस
बारे में कोई ज्ञान नहीं था कि मानव सभ्यता को ऐसे दिन भी देखने पड़ सकते हैं।
हालांकि वर्तमान में भी जब हम चाँद और मंगल की सैर कर आये हैं तो ऐसी बीमारी की
कल्पना करना बेमानी सा लगता था जबतक कि एक वायरस पूरी मानवजाति को आतंकित कर घरों
में बंद रहने के लिए विवश कर देगा।
साथ ही अगर आप गौर करें तो पाएंगे कि जिस
समय ये बीमारी फैली थी तब विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसी कोई आधिकारिक और विश्वसनीय
संस्था नहीं थी। जो इस पर शोध कर लोगों को इसके बावत जागरूक कर सके। वहीं बात अगर वायरोलॉजी
साइंस की करें तो उस दौरान विज्ञान में इस तरह किसी शोध पद्धति का भी जन्म नहीं
हुआ था। यहाँ तक की कीटाणुओं को देखने वाले इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप की खोज भी
नहीं हुई थी। जिसके बाद ही साल 1931 के आसपास
इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप के द्वारा स्पेनिश फ्लू के वायरस को देखा गया था।
ऐसे में डॉक्टर्स ने उस दौरान भी लोगों से भीड़
जमा न करने, मुँह पर रुमाल या मास्क पहनने, खांसते-छिकते समय विशेष सतर्कता बरतने,
हाथों को बार–बार साबुन से अच्छे से धोने और दूरी का खयाल रखने जैसी सलाह दी थीं।
जिस चलते अमेरिका जैसे देशों ने अपने यहाँ के सभी ऐसे स्थान जहाँ भीड़ जमा होने का
खतरा होता है, जैसे स्कूल-कॉलेज, बाज़ार, डिपार्टमेंटल स्टोर पर पाबंदी लगा दी थी। जबकि
शादी-विवाह, धार्मिक कार्यकर्मों को भी लंबे समय के लिए निरस्त कर दिया था।
रेड क्रॉस सोसाइटी ने निभाई थी अहम भूमिका-
इस घटना के दौरान रेड क्रॉस सोसाइटी ने अपनी जिम्मेदारी को बड़े बेहतरीन ढंग से निभाया था। डॉक्टर्स एवं अन्य चिकित्सा विशेषर्ज्ञों की कमी को पूरा करने के लिए रेड क्रॉस सोसाइटी द्वारा बड़े पैमाने पर आम लोगों को नर्सिंग संबंधी ट्रैनिंग दी गई थी और अभियान का हिस्सा बनाया गया था। इसके अलावा घर-घर में मास्क का निर्माण शुरू किया गया था एवं लोगों को मुफ्त में मास्क बांटे गए थें।
सबसे चिंताजनक था ये पहलू-
जिस प्रकार कोरोना को लेकर ये दावा किया जा
रहा है कि ये बीमारी सबसे ज़्यादा बुज़ुर्गों एवं ऐसे लोगों को अपनी चपेट में ले रही
है, जो कि किसी अन्य बीमारी से जूझ रहे हैं। उसी तरह स्पेनिश फ्लू भी अपने पहले
चरण यानी फ़रवरी 1918 से अप्रैल 1918 के शुरूआती दिनों में बुजुर्गों एवं ऐसे लोगों
को ही अपनी चपेट में ले रहा था जो कि किसी अन्य बीमारी से जूझ रहे थें।
जबकि उसके
बाद गर्मियों में तापमान के बढ़ते ही ये बीमारी एक दम से घट गई थी। लेकिन इसके दूसरे
चरण यानी मध्य जुलाई से लेकर सितंबर1918 के महीने में यानी मौनसून के दौरान अपने
चरम पर थी। इस दौरान इससे मरने वालों का आंकड़ा
भी प्रति 1000 में 25 लोगों का हो गया था जो कि प्रथम चरण में प्रति 1000 में 5
लोगों का था।
वहीं उस दौरान जो सबसे चौकाने वाली बात देखी गई थी वो थी कि अपने दूसरे चरण में इस बीमारी ने नौजवानों को अपनी चपेट में लेना शुरू कर दिया था जिससे कि 20 से 40 आयुवर्ग के ढेरों नौजवान इस बीमारी के कारण मौत के मुँह में समा गए थें। चिकित्सा विशेषर्ज्ञों का मानना है कि गर्मियों के बाद वापस लौटे स्पेनिश फ्लू के वायरस को मौसम का बहुत साथ मिला था एक तरह से बरसात का मौसम उनके लिए ज़्यादा अनुकूल था और जिसने उन जीवाणुओं की ताकत में बढ़ोतरी कर दी थी।
जिस कारण वे बड़ी ही आसानी से नौजवानों को अपनी चपेट में ले पाए थे। ऐसे में आने वाले
मौनसून में हमें भी इस बात का ख़ास ख़याल रखने की ज़रूरत है। क्योंकि, हो सकता है कि
बढ़ती गर्मी के कारण कोरोना वायरस का खतरा भी कुछ समय के लिए थम जाए या सुस्त पड़
जाए। लेकिन मौनसून एवं आने वाली सर्दियों में इसका स्वरुप कैसा और कितना शक्तिशाली
होगा इसके बारे में कोई भी टिप्पणी कर पाना फ़िलहाल असंभव है।
Thanks for share this information💕Thank you so much..! 💋
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